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राजपुतौ कै गुण कर्म और स्वभाव !!

१- ईला न दैणी आपणी, रण खैता भिड़ जायै !
    पूत सिखावै पालणै,मरण बड़ाई माय!!
अर्थात्
राजपूत माता अपनै पुत्र कौ पालनै ही मे मरने की शिक्षा दैती हुई कहती है कि तू रणक्षैत्र मै शत्रु से भीड़ जाना, किन्तु अपनै दैश कि धरती कौ न दैना!!

वही बालक थौडा बड़ा हौनै पर अपनी माता सै कहता है कि
२-माता बालक क्यु कहौ , रौई न माग्यौ ग्रास!
   जौ खग मारू साह सिर,तौ कहीयौ साबास
अर्थात्
  माता! तू मुझै बालक क्यु कहती है? मैनै कभी भी रोकर ग्रास नही मागां! यदि बादशाह कै सीर पर तलवार मारू, तौ शाबास कहना

यही वीर रण क्षैत्र मै अपनी माता कै स्वपन कौ साकार करता है
३-रणकर कर रज रज रगैं,रिवढकै रज हुतं!
   रद जैती धर नही दियै,रज रद व्है रजपूत ।
अर्थात्
रण की रज कौ रक्त सै लाल करकै भी वह वीर एक कण जितनी जमी भी अपनै जिवित रहतै नही दैता।

रण मे जातै समय उसकी वीर पत्नी सचैत कर दैती है
४- पाछा कर मत झाकज्यौ! पग मत दिज्यौ टार
    कट भल जाज्यौ,खैत मे, पण मत आज्यौ हार।
अर्थात्
पतिदैव आप रण मै कटकर मर जाना पर हार कर मत आना।

और वौ वीर क्षत्राणी कहती है कि
५-बिन मरीया ,बीन जितीया, धणी आविया धाम!
   पग पग चुडी पाछटू, जै रावतरी जाम।
अर्थात्
पतिदैव आप बिना मरै या बिना जितै घर आयै तौ मै आपकै कदम कदम पर चुडीया तौड दुगी , और अगर मै ऐसा ना करू, तौ मै असल राजपूत की बेटी नही

और जब वह वीर रण मे शहीद हौ जाता है तब वह वीर क्षत्राणी कहती है
६-भड़ बिण माथै जितियौ, लीलौ धर ल्यायौहा
   सिर भुलयौ भौलौ घणौ, सासुरौ जायौहा
अर्थात्
मैरी सासु का बैटा कितना भौला है जौ अपना सिर रण मे ही भुल कर आ गया

और क्या बखान करै उन वीरागंनाऔ का जौ स्वय् भी तलवार सै रण मे जौहर करती है
७-गौठ गिया सब गैहरा ,बणी अचानक आय!
   सिहंणा जाई सिहंणी, लीधी तैग उठाय।
अर्थात
घर कै सभी मर्द प्रतिभौज मे बाहर गयै है और इसी  बीच युध्द कि स्थिती आ गयी ! फिर कया था? सिंहौ कौ जन्म दैने वाली सिंहाणी(क्षत्राणी)नै तलवार उठा ली।

सत् सत् नमन है वीरांगना क्षत्राणियों।
जय क्षात्र धर्म
जय राजपुताना

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